कोची का चोट्टानिकारा देवी मंदिर…………..कोची, केरल*

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कोची का चोट्टानिकारा देवी मंदिर…………..कोची, केरल
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यहाँ मानसिक विकारों से मुक्ति मिलती है……

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केरल भगवती अर्थात भद्रकाली की भूमि है। यह केरल का अत्यंत लोकप्रिय मंदिर है। ऐसा माना जाता है की मानसिक रोग से पीड़ित भक्त जब यहाँ आकर देवी की आराधना करते हैं तब वे अपनी पीड़ा से मुक्ति पा जाते हैं।
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चोट्टानिकारा देवी कौन हैं?……….
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चोट्टानिकारा संस्कृत भाषा के ज्योतिकरा का अपभ्रंशित रूप है जिसका अर्थ है आलोकित अथवा प्रकाशमान करने वाला। देवी आदि पराशक्ति हैं जिन्हे भगवती तथा देवी जैसे सामान्य नामों से भी संबोधित किया जाता है। वे सर्वशक्तिमान हैं जिनमें उनके ही तीन स्वरूपों का समावेश है, महाकाली, महालक्ष्मी तथा महासरस्वती। अतः आश्चर्य नहीं है कि प्रातः श्वेत साड़ी में सज्ज सरस्वती के रूप में उनकी आराधना की जाती है, दोपहर में उज्ज्वल लाल रंग की साड़ी धारण किये एवं विस्तृत श्रृंगार किये लक्ष्मी के रूप में उन्हे पूजा जाता है तथा संध्याकाल में नीली साड़ी में लिपटी महाकाली अथवा दुर्गा के रूप में उनका पूजन किया जाता है।
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कहा जाता है कि इस चोट्टानिकारा मंदिर में प्रातःकाल, कोलूर की मूकाम्बिका सरस्वती विराजमान रहती हैं। इसलिए मूकाम्बिका मंदिर के द्वार दोपहर के पश्चात खोले जाते हैं जब देवी सरस्वती कोची से यहाँ वापिस आती हैं।
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चोट्टानिकारा मंदिर – कोची…………
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किवदंतियों के अनुसार, आदि शंकराचार्य शारदम्बा को केरल में निवासित करना चाहते थे। उन्होंने पर्वत के ऊपर बैठकर उनकी कठोर तपस्या की। देवी उन पर प्रसन्न हुईं तथा उन्होंने उनके साथ आने की स्वीकृति भी दी। किन्तु उन्होंने एक बंधन रखा कि वे उनके पीछे तभी आएंगी जब शंकराचार्य पीछे मुड़कर नहीं देखेंगे। शंकराचार्य पीछे मुड़कर तो देख नहीं सकते थे। अतः उन्होंने देवी के पैंजन से आते सुरों पर ध्यान केंद्रित किया एवं आगे बढ़ गए। अचानक उन्हे पैंजन के सुरों की अनुपस्थिति का आभास हुआ। उन्होंने पीछे मुड़कर देखा। वह स्थान कोलूर था। शर्त के अनुसार देवी वहीं ठहर गईं। शंकराचार्य को अपनी भूल का आभास हुआ। उन्होंने देवी से तीव्र विनती की। अंततः देवी उन पर प्रसन्न हुईं तथा उन्हे वचन दिया कि वे प्रत्येक दिवस प्रातःकाल कोलूर से चोट्टानिकारा मंदिर आयेंगी। यही कारण है कि प्रत्येक प्रातः के समय देवी यहाँ श्वेत साड़ी में पूजी जाती हैं।
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कोची का चोट्टानिकारा मंदिर……………
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कोची नगर से किंचित बाहर, इसके दक्षिणी उपनगरीय क्षेत्र में स्थित यह मंदिर मुख्यतः लकड़ी द्वारा ठेठ केरल वास्तुशैली में निर्मित है। किसी काल में इस क्षेत्र में लकड़ी की बहुलता रही होगी किन्तु अब यह अत्यंत भीड़भाड़ भरा उपनगरीय क्षेत्र है।
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मंदिर परिसर में दो भगवती मंदिर हैं जो दो भिन्न तलों में हैं। इनके साथ कुछ छोटे मंदिर भी हैं।
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मुख्य चोट्टानिकारा देवी मंदिर……………..
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यह अपेक्षाकृत विशाल मंदिर है जिसमें बड़ा खुला प्रांगण है। यहाँ मंदिर की अधिष्ठात्री देवी अपने पति नारायण के संग विराजमान है। यह संकेत है कि यहाँ देवी यहाँ अपने महालक्ष्मी स्वरूप में पूजी जाती हैं।
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देवी की प्रतिमा लेटराइट अर्थात में निर्मित है। इस शिला को संस्कृत में रुद्राक्ष शिला कहा जाता है। देवी की प्रतिमा को स्वयंभू माना जाता है। देवी के जिस रूप को आप देखते हैं वह स्वर्ण पात्र से ढँका हुआ तथा देवी के सब चिन्हों से सज्ज देवी का मानवी स्वरूप है।
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भगवती की मूर्ति के साथ महाविष्णु की प्रतिमा भी स्थापित है। दोनों की जोड़ी को अम्मेनारायण, देवीनारायण, लक्ष्मीनारायण तथा भद्रेनारायण भी कहा जाता है। आप यहाँ भक्तगणों को ‘अम्मे नारायण’ तथा ‘बद्रे नारायण’ का जाप करते देख सकते हैं। इनके साथ ब्रह्मा, शिव, गणेश, सुब्रमन्य तथा शस्ता अर्थात अय्यप्पा की भी प्रतिमाएं हैं।
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कीज़्हूक्कावु मंदिर……………
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यह एक प्राचीन मंदिर है जो मुख्य मंदिर से एक तल नीचे स्थित है। यहाँ से मुख्य मंदिर तक कुछ सीढ़ियाँ चढ़कर पहुंचा जा सकता है। इन दोनों मंदिरों के मध्य मंदिर का जलकुंड स्थित है।
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भद्रकाली यहाँ की अधिष्ठात्री देवी है।
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प्रत्येक शुक्रवार को संध्या के समय यहाँ एक शक्तिशाली पूजा की जाती है जिसे गुरुथी पूजा कहते हैं। गुरुथी का अर्थ है बलि चढ़ाना किन्तु अब यहाँ पूजा में केवल भोजन ही अर्पण किया जाता है। ऐसा माना जाता है कि इस पूजा द्वारा मानसिक रोग से पीड़ित स्त्री पर चिकित्सीय प्रभाव पड़ता है। जिन व्यक्तियों पर भूत-प्रेत की बाधा हो ऐसे लोग भी समस्या निवारण के लिए यहाँ आते हैं।
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इस प्राचीन मंदिर के भीतर एक विचित्र सी अधीरता से भरी ऊर्जा का आभास होता है। आप प्रत्यक्ष इसे अनुभव कर सकते हैं। यहाँ अनेक प्रकार के मानसिक रोगी चारों ओर बैठे रहते हैं। कह नहीं सकती कि आपको उन्हे देख लाचारी का आभास होगा अथवा मंदिर की विचित्र ऊर्जा का रोमांच।
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मंदिर के पेड़ में गड़े कील और लटकते झूले……………
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मंदिर के चारों ओर स्थित वृक्ष मोटे एवं लंबे नखों से भरे हुए हैं। ऐसा माना जाता है कि जब मानसिक रूप से रोगी व्यक्ति यहाँ, 41 दिनों तक पूजा करने के पश्चात, रोगमुक्त हो जाता है तब वह यहाँ एक नख अर्पित करता है। मंदिर के वेबस्थल के अनुसार रोगी स्वयं अपने शीश द्वारा इस नख को वृक्ष के तने में ठोकता है।
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वृक्षों के तनों पर कई छोटे छोटे झूले भी लटके हुए थे जिन्हे देख मुझे श्री लंका के त्रिन्कोमाली कोनेश्वर मंदिर की स्मृति हो आई। वहाँ भी ऐसे ही कई छोटे छोटे झूले लटके दीखते हैं। ये झूले कदाचित संतान प्राप्ति की इच्छा रखते पालक लटकाते हैं।
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वेडी वडीवाड…………..
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वेडी वडीवाड अर्थात पटाखे जलाना, यह इस मंदिर का एक अनोखा अनुष्ठान है। यह एक प्रकार की पूजा है जो लोग यहाँ करते हैं। वे इस पूजा का टिकट खरीदते हैं तब एक प्रशिक्षित व्यक्ति उनके लिए एक पटाखा फोड़ता है।
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दो मंदिरों के मध्य स्थित सीढ़ियों पर यह अनुष्ठान किया जाता है।
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चोट्टानिकारा मंदिर के उत्सव………..
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देवी मंदिर होने के कारण, इस मंदिर का सर्वोच्च उत्सव नवरात्रि ही है। मुझे बताया गया कि नवरात्रि के समय यहाँ सभी विशेष पूजा-अर्चना एवं अनुष्ठानों के साथ कई संगीत उत्सवों तथा नृत्य प्रदर्शनों का भी आयोजन किया जाता है।
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मकम थोज़ल देवी का एक वार्षिक स्नान अनुष्ठान है जब देवी मंदिर के जलकुंड तक जाती हैं। तत्पश्चात सात हाथियों के संग उनकी शोभायात्रा निकली जाती है। सजे-धजे हाथियों की यह शोभायात्रा अत्यंत भव्य होती है।
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मुख्य मंदिर के समीप एक अधिकारिक दुकान है जहां मंदिर में प्रयुक्त वस्तुओं की बिक्री की जाती है। उनमें तेल के दीप तथा देवी द्वारा धारण की हुई साड़ियाँ प्रमुख हैं। देवी की पूजा आराधना में प्रयोग की गई प्रत्येक वस्तु भक्तों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। मैंने इसके पूर्व ऐसी दुकान किसी मंदिर में नहीं देखी थी।
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मंदिर में उपयोग किये गए दीप……………
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इस मंदिर एवं नीचे स्थित प्राचीन कवु मंदिर के मध्य भी कई दुकानें हैं जहां से आप कई कलाकृतियाँ खरीद सकते हैं। इनमें प्रमुख है चोट्टानिकारा अम्मा के चित्र।

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